25 April 2024

bebaakadda

कहो खुल के

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं, समझौता बनकर रह जाती है  

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं, समझौता बनकर रह जाती है
भगवंत अनमोल एक परिचय 
by KumarR 
 
आज के साहित्य सारोकार में हम आपका परिचय करवा रहे हैं एक युवा लेखक जो इंजीनियर एमएनसी में जॉब करने के बाद लेखन की ओर मुड़ गए। फिलहाल, कानपुर (उत्तर प्रदेश) में स्पीच थेरेपी सेंटर के संचालन के साथ साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।
हाँ हम बात कर रहे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के ‘बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार’ से सम्मानित भगवंत अनमोल की जो नये विषयों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। ‘ज़िंदगी 50-50’ और ‘बाली उमर’ के बाद उनका यह तीसरा उपन्यास साइंस फ़िक्शन, दर्शन और वैचारिकता का एक अद्भुत मिश्रण है।
 
 
 
जहां  “ज़िंदगी 50-50″ में भगवंत जी ने किन्नरों का जो मनोविज्ञान अपनी पुस्तक में उतारा है , उन्होने अपनी किताब के माध्यम से ये बताया है की भावनाएं, जरूरतें, महत्वाकांक्षाएं- ये सब एक स्त्री की- लेकिन शरीर पुरुष का! एक बेहद दर्दनाक परिस्थिति जिसमे ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं, समझौता बनकर रह जाती है. ऐसे इंसान और उसके घरवालो को हर मकाम पर समाज के दुर्व्यवहार और जिल्लत का सामना करना पड़ता है. अनमोल इस बात को अच्छी तरह समझता है क्योंकि उसकी अपनी एकमात्र संतान और छोटा भाई, दोनों की यही वास्तविकता है, दोनों किन्नर है. भाई को पल-पल पिसते, घर और बाहर प्रताड़ित और अपमानित होते हुए देख अनमोल यह दृढ निश्चय करता है कि वह अपने बेटे को अधूरी ज़िन्दगी नहीं, बल्कि भरपूर ज़िन्दगी जीने के लिए हर तरह से सक्षम बनाएगा!! 
 
वहीं “बाली उमर” में  उन्होने  अपने  नानी के गांव में एक ऐसा व्यक्ति, जो हूबहू इस उपन्यास के एक पात्र ‘पागल है’ की तरह था। लोग उसे पागल कहते थे। उसकी बोली भाषा किसी को समझ नहीं आती थी। शायद इस कारण उसे लोग पागल समझते थे। वह गांव के एक ठाकुर के पास बंधुआ मजदूरी करता था। लगभग बीस वर्षों बाद पता चला कि वह पागल नहीं बल्कि दक्षिण भारत का था। उसने यह बीस वर्ष कैसे गुजारे होंगे? इसको सोचकर कर किरदार गढ़ा।
उसमें बचपन की कहानियों में नैतिक शिक्षा की बातों और  बच्चों के मन में चल रहे वयस्क सवालों को मन में रखते हुए  उस ‘पागल है’ की कहानी को बच्चों के माध्यम से दिखाने के लिए उन्होने ‘बाली उमर’ को लिखने का निर्णय लिया । ‘बाली उमर’ कतई ऐसा उपन्यास नहीं है, जिसमें यह बताया जाए कि ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ या चोरी करना बुरी बात है। बच्चों से हमें बहुत सीख मिलती है, जैसे वे दूसरों के नामकरण उनके कर्म के आधार पर करते हैं न कि जाति के आधार पर, इसे इस किताब में भी दर्शाया गया है।
 
और अब “प्रमेय”यह एक ऐसे युवा की कहानी है जिसकी परवरिश धार्मिक माहौल में हुई है और वह प्रौद्योगिकी की पढ़ाई कर रहा है। जहाँ एक तरफ़ तकनीकी यह बताती है कि इस ब्रह्मांण में ईश्वर है ही नहीं तो दूसरी तरफ़ उसके परिवार ने बचपन से यह सिखाया है कि दुनिया की हर एक वस्तु सिर्फ़ ईश्वर की देन है। उसका मन इस द्वंद्व में फंसकर रह जाता है। इसी द्वंद्व से निकलने की छटपटाहट है प्रमेय। पढ़ाई के दौरान सूर्यांश का दूसरे मज़हब की लड़की से प्रेम हो जाता है। धार्मिक कट्टरता के कारण इस नवयुगल को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस बीच कुछ ऐसा घटित होता है, जिससे सूर्यांश का सोचने का तरीका ही बदल जाता है। इसी कथानक के आधार पर लेखक ने विज्ञान, आध्यात्म और धर्म के तर्कों के सहारे ब्रह्मांड और ईश्वर की परिकल्पना को समझने का प्रयास किया है।
 
तो सौ टके की एक बात ये है कि भगवंत अनमोल वो जुझारू युवा लेखक है, उनकी लेखनी भी उनके नाम की जैसी ही अनमोल है, जो बाजार तक तो ज्यादा से ज्यादा पहुंचना चाहता है। लेकिन किसी एक ढर्रे में नहीं बंधना चाहता। हर तरह का साहित्य लिखना चाहता है ।
 
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खुश रहिए पढ़ते रहिए

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