8 May 2024

bebaakadda

कहो खुल के

साहित्य में होली

साहित्य में होली
By : डॉ मौसम कुमार ठाकुर
बेबाक अड्डा, गोड्डा
 
वैदिक काल से ही रंग, राग ,उत्साह और उमंग  का  यह पर्व  ऋतुराज वसंत में  प्रकृति में हो रहे अनेक सुखद बदलाव के बीच मनाया जाता रहा है.विभिन्न साहित्यकारों और रसिकों  ने अपनी रचनाओं के माध्यम से  इस त्यौहार की मादकता ,भाईचारा, आपसी सौहार्द, प्रेम  और विश्वास को  अक्षूण्णता को समाज के सामने अपने अपने ढंग से रखने का  सार्थक प्रयास किया है . होली  वस्तुतः हमारी संस्कृति का, लोक संगीत  और लोक कला का प्रतीक है . यह हमारे राष्ट्रीय एकता का भी प्रतीक है जिसके पौराणिक महत्प्रव और उद्देश्य हैं. प्रसिद्ध कवि नजीर अकबराबादी ने इसे हिंदू मुसलमान दोनों का साझऻ पर्व बताया है.
 
 इस पर्व को मनाने के पीछे विभिन्न वैदिक व पौराणिक मत हैं. वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है.इस दिन खेत के अध पके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान रहा है.इस अन्न को होला कहा जाता है, इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था.इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है.कुछ मतावलंबी इसे अग्निदेव का पूजन मानते हैं. मनु जी का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है.अत: इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है.पुराणों के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से यह त्योहार मनाने का प्रचलन हुआ. चूकी यह पर्व वसंत ऋतु में बड़े ही  हर्केष और उल्लास के साथ मनाया जाता है इसलिए इसे ‘बसंतोत्सव’ और ‘काममहोत्सव’ भी कहा जाता है. फाल्गुन मास में  पर्व मनाये जाने के कारण इसे ‘फाल्गुनी’ के नाम से भी जाना जाता है .
 
काठक गृह्य सूत्र के एक सूत्र के टीकाकार के अनुसार 
 “होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होलाके राका देवता। “ अर्थात 
होला एक कर्म विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है. इसमें राका (पूर्णचन्द्र) देवता हैं।.होलिका संपूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीड़ाओं में से एक है.वात्स्यायन के अनुसार लोग श्रृंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगंधित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं.लिंगपुराण में उल्लेख है कि फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है.
 
इतिहासकारों के अनुसार आर्यों में भी इस पर्व को मनाने का प्रचलन था जिसका वर्णन जैमिनी के पूर्व मीमांसा और गार्ह्य-सूत्र आदि अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है.‘नारद पुराण’ व ‘भविष्य पुराण’ जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों में और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है . बिंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है.
 प्रसिद्ध फारसी विद्वान , धर्मज्ञान एवं विचारक मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा स्मरण में बसंत ऋतु में मनाए जाने वाले होलिकोत्सव का वर्णन किया है.
 
संस्कृत साहित्य में बसंत ऋतु और बसंतोत्सव अनेक कवियों के विषय रहे हैं |महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘ऋतुसंहार’ में पूरा एक सर्ग ही ‘बसंतोत्सव’ को समर्पित है . कालिदास के ‘कुमारसंभव’ और‘मालविकाग्निमित्र’ में ‘रंग ‘ नाम के उत्सव का वर्णन है . भारवि व माघ तथा अन्य संस्कृत के कवियों ने बसंत की बहुत ही अधिक चर्चा की है . हिन्दी व संस्कृत साहित्य के साथ- साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत,लोक गीत, और फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में भी होली को विशेष महत्त्व  के साथ प्रस्तुत किया जाता आ रहा है.
 
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है.श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है. भगवान कृष्ण की लीलाओं में भी होली का वर्णन मिलता है |.अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं.
 
कीर्णौःपिष्टातकौधैः कृतदिवसमुखैः कुंकुमसिनात गौरेः
हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिखैः शेखरैः कैकिरातैः।
एषा वेषाभिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा
कौशाम्बी शातकुम्भद्रवखजितजनेवैकपीता विभाति।
हर्ष  -‘रत्नावली’.
 
कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है.भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है.चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है.भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है.आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है.
 
कवि पद्माकर ने वसंत में होने वाले मनोहर प्राकृतिक परिवर्तन और सुहावने मौसम के बीच होली का अत्यंत आनंददायी वर्णन किया है. गोपियों और कृष्ण, राधा और कृष्ण के बीच होरी खेल, छेड़छाड़ का सुंदर वर्णन किया है–
 
फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की ‘पद्माकर’ ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी।
नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी! 
       
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहैं पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनैं नहीं।
तौ लौं चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके कै निचौरे ताहि करत मनै नहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत तौं बोर्यौ पै निचोरत बनै नहीं।।
 
 कवि के अनुसार गोकुल क्षेत्र के ग्वालों के सभी गांवों की गली-गली में होली का उल्लास इस तरह से छाया हुआ है कि वहां के हाल के बारे में कुछ भी कहते नहीं बनता। कवि का तात्पर्य यह है कि वहां हर ओर होली की मस्ती छाई हुई है। कवि पद्माकर कहते है कि लोग अपने आस-पड़ोस, पिछवाड़े और द्वार-द्वार तक दौड़ लगते हुए होली खेल रहे है.वे किसी के गुण-अवगुण का भी ध्यान नहीं रखते.कवि होली का वर्णन करते हुए आगे कहता है कि कोई चंचल और चतुर सखी अपनी सखी से कहती है कि वह रंग में भीगे हुए अपने कपड़े को अच्छी तरह से निचोड़ने का प्रयास करती है, लेकिन उसमें निचोड़ते नहीं बनता क्योंकि उसका मन वश में नहीं रहा.
                                                                       
चाहे  सगुन साकार भक्तिमय प्रेम हो या निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम या फिर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच का प्रेम हो,फाल्गुन माह का फाग भरा रस सबको छूकर गुजरा है.होली के रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह ईश्वर को भी है तो भक्त को भी है, प्रेमी को भी है तो प्रेमिका को भी.
 
मीरां बाई ने होली के माध्यम से अपने इष्ट की आराधना करते हुए सुंदर सुंदर पद चित्रित किये हैं 
इसके लिए उसने फागुन में खेली जाने वाली होली के रूप-दृश्य को चित्रित किया है। इसके माध्यम से मीरा  ने यह दर्शाने काा प्रयास किया  कि होली में जिस तरह का राग-रंग मनाया जाता है-वैसा ही राग-रंग भक्त के भीतर अपने इष्ट के प्रति अनहद नाद की झनकार, शील और संतोष की केशर और प्रेम की पिचकारी होती हैै
 
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।
 
इस पद में मीरां ने होली के पर्व पर अपने प्रियतम कृष्ण को अनुराग भरे रंगों की पिचकारियों से रंग दिया है.मीरां अपनी सखि को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि, हे सखि मैं ने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली.होली  में बादलों का रंग भी उडाये गए गुलाल से लाल हो गया. रंगों से भरी पिचकारियों से रंग रंग की धारायें बह चलीं. मीरां कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैं ने मटकी में चोवा, चन्दन,अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं. मीरां कहती हैं कि मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है.  मीरां के इन पदों में होली का सजीव वर्णन हुआ है.
 
महाकवि सूरदास ने भी वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं.सूरदास जैसे नेत्रहीन कवि भी फाल्गुनी रंग और गंध की मादक धारों से बच न सके और उनके कृष्ण और राधा बहुत मधुर छेडख़ानी भरी होली खेलते हैं-
 
हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद
 
सूर के कान्हा की ऐसी मनमोहक होली देखकर देवतागण तक अपना कौतुहल न रोक सकते थे और आकाश से इन मोहक दृश्यों का आनंद लेने लगते थे. होली के दिन कृष्ण के साथ ग्वाल बाल और सखियां फाग खेल रहे हैं. इसी फाग के रंगों के बहाने ही गोपियां मानो अपने हृदय का अनुराग प्रकट कर रही हैं, मानो रंग रंग नहीं उनका अनुराग ही रंग बन गया है. सभी गोपियां सुन्दर साडी और चित्ताकर्षक चोली पहन कर ,अपनी आँखों में काजल लगा कर कृष्ण की पुकार सुनते ही बन ठन कर अपने घरों से निकल पडीं और होली खेलने के लिये कृष्ण के आगे आ खडी हो जाती है.
 
 कवि रसखान  ने तो अपने नाम के अनुरुप होली को रसों के खान में भीगते हूए फाग लीला के अर्न्तगत अनेकों सवैय्ये रच डाले हैं.सभी एक से एक रस और रंग से सिक्त _
 
फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।
 
एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है,कि जबसे फाल्गुन मास लगा है तभी से ब्रजमण्डल में धूम मची हुई है। कोई भी स्त्री, नवेली वधू नहीं बची है जिसने प्रेम का विशेष प्रकार का रस न चखा हो। सुबह शाम आनन्द मगन होकर श्री कृष्ण रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि इस माह में कौन सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा और संकोच तथा मान नहीं त्यागा हो!
 
खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहीं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखन कहा है जौ बार न कीजै।।
ज्यों ज्यों छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यों त्यों छबीलो छकै छबि छाक सों हेरै हंसे न टरे खरो भीजै।।
 
एक गोपी अपनी सखि से फागलीला का वर्णन करती हुई कहती है कि ऐ सखि,मैं ने कृष्ण और उनकी प्रिया राधा को फाग खेलते हुये देखा। उस समय की जो शोभा थी उसे किसी की भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह शोभा तो देखते बनती थी, कि उस पर कोई ऐसी वस्तु भी नहीं जिसे निछावर किया जा सके.ज्यों ज्यों राधा एक के बाद एक रंग भरी पिचकारी उनपर डालती थीं, त्यों त्यों वे उनके रूप रस में सराबोर होकर मस्त हो रहे थे और हंस हंस कर वहां से भागे बिना खडे ख़डे भीग रहे थे.
 
 संयोग और वियोग निरुपण के सिध्दहस्त कवि बिहारी ने अपने संयोग हो या वियोग सभी फागुन मास के पदों से सराबोर किया है.प्रिय हैं तो होली मादक है और प्रिय नहीं हैं तो होली जैसा त्यौहार भी रंगहीन प्रतीत होता है , नायिका को बसन्त ॠतु भी अच्छी नहीं लगती है, इस प्रकार होली की महता में चार चांद लगाते हैं.—
 
बन बाटनु पिक बटपरा, तकि बिरहिनु मत मैन।
कुहौ कुहौ कहि कहि उठे, करि करि राते नैन।।
हिय/ और सी हवे गई डरी अवधि के नाम।
दूजे करि डारी खरी, बौरी बौरे आम।।
 
बिहारी ने फागुन को साधन के रूप में लेकर संयोग निरुपण भी किया है. फागुन महीना आ जाने पर जब नायक नायिका के साथ होली खेलता है तो नायिका भी नायक के मुख पर गुलाल मल देती है या फिर पिचकारी से उसके शरीर को रंग में डुबो देती है.
 
जज्यौं उझकि झांपति बदनु, झुकति विहंसि सतराई।
तत्यौं गुलाब मुठी झुठि झझकावत प्यौ जाई।।
पीठि दियैं ही नैंक मुरि, कर घूंघट पटु डारि।
भरि गुलाल की मुठि सौं गई मुठि सी मारि।।
 
पद्माकर के द्वारा भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की, गई है.इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है.
 
सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं.
 
मुगलकाल में भी हर्षोल्लास के साथ होली मनाया जाता था. अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है. राजस्थान के एक प्रसिद्ध शहर अलवर के संग्रहालय के एक चित्र में तो जहांगीर को नूरजहां के साथ होली खेलते हुए दर्शाया गया है.इतिहास में शाहजहां के समय तक होली बदले मुगलिया अंदाज में मनाया जाता था. शाहजहां के जमाने में होली को‘ईद-ए-गुलाबी’ या ‘आब-ए-पाशी’ कहा जाता था जिसे हिन्दी में ‘रंगों की बौछार’ कहते थे .
 अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि वे तो होली के इतने दीवाने थे कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे.मेवाड़ की चित्रकारी में महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे.
 भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली के महत्व दर्शाया गया है .
 
 शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल औरठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है.कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं.
 
 ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी.
 
      भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं.होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है.
 
    उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं. होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होलीके विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है.
 
     जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है.उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं. भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है.  उत्सव, यश ,सिलसिला, शोले, झनक झनक पायल बाजे ,नवरंग, बागवान इत्यादि उल्लेखनीय हैं.
 
     भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। ‘सिलसिला’ के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और ‘नवरंग’ के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं.  बागवान के होली खेले रघुवीरा,,,,,. आदि.
 
 
आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो ,स्वदेश राणा की हो ली में होली, मैथिली शरण की होली , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की खेलूंगी कभी ना होली , केसर की कली की पिचकारी  , हरिवंश राय बच्चन की होली, तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है,  नामवर सिंह की फागुनी शाम आदि के अलग अलग रूप में होली के वर्णन देखने को मिलते हैं.
 
इस प्रकार साहित्यकारों ने फागुन मास और होली के रंग भरे त्योहार को अपने शब्दों में बडी सजीवता से प्रस्तुत किया है.होली का महत्व जो तब था, आज भी वही है. फागुन मास में बौराये आमों की तुर्श गंध और फूलते पलाश के पेडों के साथ तन मन आज भी बौरा जाता है। आज भी होली रूप रस गंध का त्यौहार है। होली उत्साह, उमंग और प्रेम पगी छेडछाड लेकर आती है। होली सारे अलगाव और कटुता और अपनी रंग भरी धाराओं से धो जाती है। इस रंगमय त्यौहार की महत्ता अक्षुण्ण है.
 
लेखक : (डॉ मौसम कुमार ठाकुर, गोड्डा जिला में शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं)

[contact-form-7 id=”3045″ title=”Contact form popup_copy”]