रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर
फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर
By- रूपेश कुमार
क्या कोई व्यक्ति सदन में बैठकर अपने प्रधानमंत्री को ऐसी खरी खोटी सुना सकता है ? हाँ बिल्कुल इतिहास में यह हो चुका है, और सच मानिए तो ऐसा साहस और सामर्थ्य सिर्फ एक कवि ही दिखा सकता है. आज के साहित्य सरोकार में हम याद कर रहे हैं स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये रामधारी सिंह दिनकर जी को. वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे. एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति.
दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था. संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में राष्ट्रीय मिडिल स्कूल जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया. यहीं से इनके मन-मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था. हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने मोकामाघाट हाई स्कूल से प्राप्त की.
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स करने के बाद अगले ही वर्ष एक स्कूल में वे प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए, पर 1934 में बिहार सरकार के अधीन इन्होंने सब-रजिस्ट्रार का पद स्वीकार कर लिया. लगभग नौ वर्षों तक वे इस पद पर रहे, और उनका समूचा कार्यकाल बिहार के देहातों में बीता तथा जीवन का जो पीड़ित रूप उन्होंने बचपन से देखा था. उसका और तीखा रूप उनके मन को मथ गया, फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए. रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं. चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया.
देश आजाद होने के बाद राज्यसभा के सदस्य रहे और 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने. उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया.
मुक्तक काव्य संग्रहों के अतिरिक्त दिनकर ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है, जिनमें ‘कुरुक्षेत्र’ (1946 ई.), ‘रश्मिरथी’ (1952 ई.) तथा ‘उर्वशी’ (1961 ई.) प्रमुख हैं. ‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं. दिनकर के काव्य में विचार तत्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था। ‘कुरुक्षेत्र’ के बाद उनके नवीनतम काव्य ‘उर्वशी’ में फिर हमें विचार तत्व की प्रधानता मिलती है. साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले ‘कुरुक्षेत्र’ का हिन्दी जगत में यथेष्ट आदर हुआ। ‘उर्वशी’ जिसे कवि ने स्वयं ‘कामाध्याय’ की उपाधि प्रदान की.
हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं, जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों. जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी. दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था.
रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे. लेकिन, जब बात देश के हित-अहित की आती थी, तो वे बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे. रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था. दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके.
देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है॥
दिनकर और हरिवंशराय बच्चन दोनों समकालीन थे. समकालीनों के बीच की जलन और प्रतिस्पर्धा किसी के लिए भी छिपी हुई बात नहीं. पर दिनकर ऐसे कवि थे जो अपने समकालीनों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय थे. दिनकर को जब उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ मिला तो किसी आग-लगाऊ पाठक ने बच्चन जी को पत्र लिखकर पूछा कि – ‘क्या यह एक सही निर्णय था. बच्चन जी दिनकर को मिले इस पुरस्कार के सन्दर्भ में क्या सोचते हैं.’ इसपर बच्चन जी का जवाब था, ‘दिनकर जी को एक नहीं बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ मिलने चाहिए थे.’
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
इसकी एक मिसाल 70 के दशक में संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है. दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था.
पद्म भूषण से सम्मानित दिनकर राज्यसभा के सदस्य भी रहे. वर्ष 1972 में उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान भी दिया गया. 24 अप्रैल, 1974 को उनका देहावसान हो गया.
हिंदी साहित्य के बड़े नाम दिनकर उर्दू, संस्कृत, मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी जानकार थे. वर्ष 1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया.
अगर हम रामधारी सिंह जी काव्य कृतियों को लिखने लगें तो शायद उनको एक जगह लाने में कई अंक कम पड़ जाएँ, फिर भी उनके बारे में कुछ लिखूँ और कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी की निम्न पंक्तियों का जिक्र न करूँ ये तो हो ही नहीं सकता.
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो – (कुरूक्षेत्र से)
मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। – (रश्मिरथी से)”
लेखक मार्केटिंग एण्ड सेल्स प्रोफेशनल,एजुकेशनिस्ट हैं और ‘स्ट्रेट फर्म लाइफ,जज़्बात और ब्लड ‘ नाम की किताब के ऑथर हैं
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