3 November 2024

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कहो खुल के

डॉटर’स डे यानि बेटियों को महत्वपूर्ण समझने का दिन

डॉटर’स डे यानि बेटियों को महत्वपूर्ण समझने का दिन
By- Anu Shakti Singh 
 
आज डॉटर’स डे है यानि बेटियों को महत्वपूर्ण समझने का दिन। क्या बेटियों के लिए केवल एक दिन है? उन्हें ख़ास महसूस करवाने के लिए किसी दिन की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्यों नहीं है उनके लिए समानता? जब भी इक्वलिटी या समानता जैसे शब्दों के बारे में सोचती हूँ, ‘मिराज’ शब्द स्वतः ही ज़हन में उतर आता है. मिराज हिंदी के मृगतृष्णा/मरीचिका/ भ्रम शब्द का क़रीबी शब्द है. 
 
स्त्री संघर्ष की कहानी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी रीत स्त्रियों के पांवों में बंधन डालने की है. हमारी पूर्वजाओं ने अपने संघर्ष की कथा कभी थेरीगाथा के रूप में दर्ज की तो कभी यह मिथकों में लोपामुद्रा, गार्गी वाचकनवी के माध्यम से उभर कर सामने आयी. 
सभ्यताएँ स्त्रियों को दबाती रहीं. उनके नाम युद्ध की विभीषिका लिखती रहीं और स्त्रियाँ ज़बरदस्ती बंद कर दिए दरवाजों से पार निकलने को दरीचे खोलती रहीं. 
 
कितने नाम हैं और कितनी कथाएँ आहुतियों की. कितनी पाली सुकुमारी आम्रपाली बनकर नगरवधु के नाम दर्ज हो गयीं. कितनी माधवियों को बार-बार बेचा गया. न जाने कितनी राजकुमारियां पिता और भाई का शासन बचाने की ख़ातिर नेग में भेजी गयीं (राज्य बचाने की खातिर बेटी रोटी का सम्बन्ध जोड़ना भी नेग देना ही था), इन सबके बावजूद आप सवाल करते हैं क्या स्त्रियों की हालत सच में ख़राब थी… 
जी, इसे दयनीय हालत ही कहेंगे जिससे हर काल में  कुछ योद्धा स्त्रियाँ जूझती रहीं. 
इक्कीसवीं सदी के बीस साल बीत जाने पर भी काश हालात बदल जाते! अब भी बंधे-बंधाये रीत को तोड़ने वाली लड़कियां योद्धा ही होती हैं. वह समाज जिसे इतनी सदियों में सुधर जाना था, बेहतर हो जाना था, समावेशी हो जाना था, वह अब भी लीक से अलग हटकर चलती लड़कियों से घबराता है. 
 
खुलकर बोलती लड़कियां उसे बिलकुल नहीं पसंद आती. उसे नहीं पसंद आती हैं अपना निर्णय ख़ुद लेती स्त्रियाँ. उसे नहीं पसंद आती सर उठाकर चलती निर्भिक स्त्रियाँ. मनमौजी लड़कियां तो वेश्या होती हैं. और वेश्याएं – जिसे उन्होंने ही पैदा किया – वे तो समाज का नाश करती हैं. यानि हर मनमौजी लड़की समाज विनाशक होती हैं. ठीक ही तो है, वे उस समाज का विनाश करती हैं, जो बेहद स्त्री-विरोधी है. 
जब तक यह बात पुरुषों के मुंह से निकलती है, हँसी आती है. अहसास होता है कि उनका डर बोल रहा है, पर यही बात जब स्त्रियाँ करने लगें? 
जब स्त्रियाँ ही लगातार संघर्ष कर रही स्त्रियों को चरित्रहीन का तमगा दे दे? जब स्त्रियाँ ही लगातार अपनी उलझनों को अपने बूते सुलझा रही  एकल माताओं पर सिंगल मदर कार्ड खेलने का आरोप लगा दें तो? 
 
इस ज़माने में जब रूढ़ियों वाला आदर्श पूरी तरह से ढह जाना चाहिए था, तब परम्पराओं के नाम पर घूंघट और सुहाग के चिन्हों का अजीबोगरीब प्रदर्शन होने लग जाए क्योंकि समुच्चय में स्त्री-आज़ादी की पैरोकार स्त्रियाँ इसका विरोध कर रही हैं. 
दुखता है… हर बार जब स्त्रियाँ ही स्त्री विरोधी बन कर सामने आती हैं तो कष्ट का प्रतिशत बढ़ जाता है. चीखने का मन करता है, बहन एक स्त्री की आज़ादी केवल उसकी आज़ादी नहीं होती, यह बाक़ी सब के लिए किवाड़ का थोड़ा खुलना होता है. 
 
बहुत तकलीफ होती है जब स्त्री संन्यासिनियों की परम्पराओं के माध्यम से तलाकशुदा स्त्रियों के जीवन पर प्रहार करने की कोशिश होती है. क्या समाज सन्यासी/अविवाहित  स्त्रियों को भी यूँ ही देखता है जैसे तलाक़शुदा स्त्रियों को? अगर नहीं तो एक ही परंपरा में समेटने की कोशिश क्यों? तलाक़शुदा स्त्रियों के संघर्ष को जोड़ना है तो बाल-विधवाओं या फिर उन परित्यक्ताओं के जीवन से जोड़िये जो मायके में एक कोने में पड़ी रहती थीं. क्या आप आज की आत्मनिर्भर तलाक़शुदाओं से भी यही चाहते हैं? अगर हाँ तो मुआफ़ कीजियेगा, हमें आपकी सहानिभूति और दया नहीं चाहिए, हम एकल हैं, प्रखर हैं. 
 
जानती हूँ मैं आपका स्त्री-विरोध अपने प्रिय पुरुषों की प्रिय बने रहने की तात्कालिक लालसा है. ठीक भी. पुरुष दुश्मन तो नहीं. किन्तु स्वयं स्त्री-विरोधी होने की जगह क्यों न उन पुरुषों को बदला जाए. क्यों न उनसे कहा जाए कि प्यार या परिवार, आधा हक़ स्त्रियों का होता है.
क्या बुराई है उस पुरुष से अलग हो जाने में जो स्त्रियों को बराबर अधिकार और सम्मान का ग्राही नहीं समझता? क्या बुराई है अकेले जीने में और अपनी राह बनाने में …हाँ, रास्ता मिथक की हर एकल माँ चाहे शर्मिष्ठा हो या सीता, सबके लिए मुश्किल रहा था, पर रास्ता वहीं से निकलता है.
 
(ब्रॉडकास्ट मीडिया और कम्युनिकेशन से संबंध रखने वाली अणु शक्ति सिंह मूलतः बिहार के सहरसा जिले से वास्ता रखती हैं . बीबीसी मीडिया एवं सुलभ इंटरनेशनल में काम करने के पश्चात इन दिनों नीदरलैंड्स स्थित आरएनडब्लू मीडिया के भारतीय उपक्रम “लव मैटर्स इंडिया” में कार्यरत हैं. 
“विद्यापति पुरुस्कार 2019′ से सम्मानित अणु जी के  पहले उपन्यास शर्मिष्ठा का 
प्रकाशन,वाणी प्रकाशन से हुआ है, इन सब के अलावा इनकी  रचनाएं दैनिक जागरण ,अहा जिंदगी ,जानकी पूल ,समालोचन व अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं )

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