27 April 2024

bebaakadda

कहो खुल के

क्या स्वार्थ के डर से परमार्थ की बात नहीं कहोगे?

क्या स्वार्थ के डर से परमार्थ की बात नहीं कहोगे?
By- डॉ विजय शंकर,
 
  शायद इसी शाश्वत सत्य और धरातलीय प्रश्न का उत्तर,महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद, अपने सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी *पंच परमेश्वर*में बुढ़ी खालाजान के मुंह से, अलगु चौधरी के सामने *यक्ष प्रश्न* के रुप में रखा था।
           
 प्रश्न तो सभी के पास किसी न किसी रूप आता है,पर उत्तर केवल और केवल वही दे सके, जिनका ज़मीर ज़िंदा और सामाजिक निन्दा का भय नहीं सताया।।
अधिकांशतः एक-दूसरे के सिर दोषारोपण कर, व्यवस्थागत दोष बताकर, मौनीबाबा बनकर, स्वार्थ का घी पीकर निकल लिए या फिर किसी निर्दोष को सूली पर लटकवा दिए, खुदको सुरक्षित, पाकसाफ रखने के लिए।।
 
 विद्वतवर हिन्दी साहित्य के गद्यसम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने  31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में मुंशी अजायबलाल के घर जो पूत ने जन्म लिया.  वह न केवल अपने प्रदेश बल्कि समूचे देश का सपूत होने का स्वर्णिम सबूत दे दिया।।
 
 पारिवारिक परिस्थितियों ने बालमन को झकोंरा, सामाजिक ताने-बाने ने हृदय तार को झंकृत किया, गुलामी की बदहाली ने विद्रोह के लिए उत्प्रेरित किया।
 महात्मा के आलोक ने पथ को आलोकित किया,वर्ना कलम थामने की जगह *बंदूक उठाने* की परिस्थिति ज्यादा अनुकूल थी।।
 
  विषमता के बीज,स्वार्थ प्रेरित खीझ, जाति-धर्म के उत्पीड़न, भाषा-संस्कृति की टूटती दीवार, अंग्रेजीयत का दिखावा, सिसकती गरीबी, शोषण की अनवरत जलती अग्नि सबकुछ उनके आंखों की सामने थी।
अभाव का स्वभाव पर प्रभाव नहीं पड़ा,उल्टे स्वाभिमान, देशप्रेम, सुधार के लिए विचार प्रखर हो उठी।।
           *सोज-ए-वतन* (वतन का दुःख-दर्द) से शुरू हुई. लेखकीय यात्रा नामांतरण से निरंतर संघर्ष करते हुए, कुंदन बनकर *प्रेमचंद* के नाम से प्राख्यापित हुई।
         उर्दू-फारसी और हिंदी की तिकड़ी ने भाषा की ऐसी सरल, सहज और सुबोध सरिता बहायी कि जो भी लिखे, वही सब जगह दिखे।
                समस्त कहानियों में किसे सबसे अच्छा कहें, मुश्किल काम है, फिर भी*बड़े घर की बेटी*प्रेम पचीसी, *नमक का दारोगा *पंच परमेश्वर* सबके जिह्वा पर चढ़ी रहती थी।
            1916-17 में आपने *सेवासदन* लिखा और *रंगभूमि* पर उपन्यास सम्राट से विभूषित हुए।
          *धनाभाव अवरोधक नहीं बना, मगर सुख के सेज भी नहीं बिछाने दिए* तथापि आपने 1922 में *सरस्वती प्रेस* और 1930 में *हंस पत्रिका* निकाली।।
आपके चर्चित उपन्यास में *कर्मभूमि* और गोदान का स्थान सर्वोपरि है।।
 
सेवासदन, गोदान और गबन पर प्रतिष्ठित निर्माता-निर्देशक ने फिल्म बनायी। शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति को सत्यजीत रे आम से खास तक पहुंचाया। कफ़न पर आधारित तेलगू फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नबाजा गया।।
         लगभग तीन सौ से अधिक कहानी, चौदह से अधिक उपन्यास  आपने हिन्दी साहित्य को समर्पित किए। देश -विदेश की प्राय: सभी भाषाओं में आपके रचनाओं का अनुवाद हुआ।।
               
 सर्वप्रथम बांग्ला के महान साहित्यकार ने आपको *उपन्यास सम्राट* और आपके ही पुत्र ने आपको *कलम का सिपाही* से अभिनन्दित किया।।
 
               
 आपके द्वारा रचित कहानियां , उपन्यासआज भी उतनी ही प्रासांगिक है जितना उस समय थी।
दरअसल आपकी लेखनी में बनावट नहीं,कसावट है, प्रदर्शन नहीं समर्पण है, विध्वंस नहीं निर्माण की चेतना है, कोलाहल नहीं सुधार का हलचल है, शोषण नहीं शांति का जयघोष है। भाषा भावगामिनी है, पात्र में परिवर्तन की क्षमता है, दुःख से निवृत्ति की अकुलाहट है, जो है उसका सहज चित्रण है, बलात आसमानी या शेखचिल्ली का शौक नहीं आपमें।।
           धन्य हैं,धन्य थे और धन्य ही रहेंगे।।
 
    कोटि-कोटि प्रणाम, गद्यसम्राट,कलम के सिपाही, हिन्दी साहित्य के भाल, मुंशी अजायबलाल के लाल *धनपत/ राय/नवाब राय , मुंशी प्रेमचंद जी के पावन चरणों में।।

डॉ विजय शंकर, आर एल सर्राफ हाई स्कूल, देवघर (झारखंड) में कार्यरत हैं और अटल लैंग्वेज लैब, देवघर के संस्थापक हैं.

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